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रविवार, 17 मई 2020

बन ना जाऊ तमाशा कहि बाजार में

   

बन ना जाऊ तमाशा कहि बाजार में
  दिल का दर्द दिल मे छुपाये रहता हूँ ।
आँखों मे रुके रहते है अश्क क्योकि
    मुस्कानों का मुखोटा लगाये रहता हूँ ।।

समझ गया अब दस्तूर ये जमाने का
  है ही काम इनका सब्र आजमाने का ।
 दिलो में नफरत रख खैरियत पूछते है
    बनकर हमदर्द खुशियों को फूंकते है ।।

जानकर सब पागल में बना रहता हूँ
  जलने वालो से भी सलाम रखता हूँ ।
बन ना जाऊ तमाशा कहि बाजार में
   दिल का दर्द दिल मे छुपाये रहता हूँ ।।

कहाँ खो गयी इस भीड़ में इंसानियत
   ढूँढता हूँ तो नज़र आती है हैवानियत ।
नही शिकवा मुझे कुछ इस जमाने से
    अपने तो पता चलते ही आजमाने से ।।

 "बटोही" यही इल्तजा बार बार करता हूँ
  मत भटक हर सीतम को समझता हूँ ।
  बन  ना जाऊ  तमाशा कहि बाजार में
    दिल का दर्द दिल मे छुपाये रहता हूँ ।।

  रचनाकार -
  निशान्त झा "बटोही"

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