बन ना जाऊ तमाशा कहि बाजार में
दिल का दर्द दिल मे छुपाये रहता हूँ ।
आँखों मे रुके रहते है अश्क क्योकि
मुस्कानों का मुखोटा लगाये रहता हूँ ।।
समझ गया अब दस्तूर ये जमाने का
है ही काम इनका सब्र आजमाने का ।
दिलो में नफरत रख खैरियत पूछते है
बनकर हमदर्द खुशियों को फूंकते है ।।
जानकर सब पागल में बना रहता हूँ
जलने वालो से भी सलाम रखता हूँ ।
बन ना जाऊ तमाशा कहि बाजार में
दिल का दर्द दिल मे छुपाये रहता हूँ ।।
कहाँ खो गयी इस भीड़ में इंसानियत
ढूँढता हूँ तो नज़र आती है हैवानियत ।
नही शिकवा मुझे कुछ इस जमाने से
अपने तो पता चलते ही आजमाने से ।।
"बटोही" यही इल्तजा बार बार करता हूँ
मत भटक हर सीतम को समझता हूँ ।
बन ना जाऊ तमाशा कहि बाजार में
दिल का दर्द दिल मे छुपाये रहता हूँ ।।
रचनाकार -
निशान्त झा "बटोही"
अद्भुत रचना
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