.।।।।सरस्वति वंदना।।
परात परमेश्वर परम ऐश्वर्यशालिनी।
परम पिता उर निवासिनी।
माँ सरस्वती मनभावनी।
देवत्व की है मुझे कामना।
नही है और कुछ चाहना।
आत्मिक चेतना के शैल शिखर पर बैठा दो।भौतिक,दैविक
अध्यात्मिक ताप मिटा दो।
झर झर सरस स्निग्ध
धारा।
दिव्य सोम अन्तः बहा दो।
ज्ञान,भक्ति की करें उपासना।
भरे सोम रस कलश प्यारा।
जीवन हो जगमग न्यारा।
मन,बुद्धि,प्राण शुद्ध हो।
विमल चित्त मे परिलक्षित हो।
कर्म,वचन शिव हो।
माँ उद्दात भाव से भर दो।
उठे मन मे सात्विक उद्रेक।
भागे राग द्वेष अनेक।
माँ सात्विक मन कर दो।
छिडा मन मे वत्रासुर संग्राम।
इन्द्र विजय कर दो।
अन्तः वाह्य रिपु मिटा दो।
मुझे अजातशत्रु बना दो।
माँ मेरा अभिराम मिटा दो।
प्रेयस मार्ग से हो विरक्ति।
श्रेयस मे हो प्रवृति।
सुक्रत कर्मो मे लगा दो।
मै सत्यधारी बनू।
मुझे सन्मार्गी बना दो।
हे ज्ञानेश्वरी,योगेश्वरी
मै जिज्ञासु ज्ञान पिपासु
हे धीवसु ज्ञानी बना दो।
मेरा हो वर्चस्व।
सुगन्ध कर्मो की फैले सर्वत्र।
सब विधाओं मे पारंगत
मुझे बना दो।
।बनू मै वेदाभ्यासी अनुरागी।
निश दिन रसना मेरी रटे ऋचाऐ तेरी।
कंठ बसो माँ शारदे।
मीठे बोल सिखा दो।
जब जब बोलू मुख से।
अमृत की बौछार लगे।
मन मेरा तृप्त करे
औरन का कल्याण करे।
शरीर मेरा आत्मा रथी।
अनुपम भेंट प्रभु की।
सुगठित,सुसज्जित सुदृढ।
छिद्र रहित हो दोनो चक्र
यम नियम की धुरा लगा दो।
स्वधर्म हो परिलक्षित।
सत्य अहिंसा से हो दीक्षित।
सुगम जीवन च्रक चला दो।
माँ मुझे धर्मावतारी बना दो।
दिव्य गुणो की चुनरी
सुशोभित भवत्व रत्न जडित
ओढ़नी मुझे उठा दो।
आयु,प्राण उत्तम संतान।
यश,बल,धवल कीर्ति
करो प्रदान।
आरूढ रथ पर दिव्य रथी।
रथ की हो तीव्र गति।
आत्मा मेरी हो सारथी।
प्रेरित करती ज्ञानेश्वरी।
कुशल संचालिका अधिष्ठाता।
जीवन सुमंगल प्रदाता।
मुझे मिले परम गति।
माँ मुझे द्यौलोक ले चलो।
अशोक जौहरी
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