कृषक अन्न के दाता भूखे,
राजमहल खु़शियाली।
साम-सोम की सरिता में,
होती रंगीन दिवाली।
कृषकों के हीं खुँन बहाकर,
लाल रूमाल किये जाते।
देने की कुछ बात न होती।
कर में खुँन लिये जाते।।
सुकुमारी सत्ता सोई है,
सजी सिंहासन सोने की।
श्रवनशक्ति खो बैठी है,
आवाज न सुनती रोने की।।
जो है देश का भाग विधाता,
वही आज भूखा रहता।
लक्ष्मी की तकदीर जो लिखते,
उनका तन नंगा रहता।।
प्रतिनीधि के हाथ अंगुठी,
पुछो जड़े नगीनो से।
संसद् की दीवार रंगी है,
कृषकों के हीं खूँनो से।।
विलासिता के द्युत फलक पर,
गोटी फेंकी जाती है।
कृषक चिता पर राजनीति की,
रोटी सेंकी जाती है।।
कृषि क्षेत्र में पैर न रखते,
कृषक श्रेष्ठ कहलाते हैं।
सरकारी अनुदानों को भी,
गीद्ध झपटकर खाते हैं।।
राजनीति में ठुमके नखरे,
अभिनय के सिर ताज यहाँ।
कृषक चिता पर किला बनाकर,
जीते हैं रसराज यहाँ।।
रक्त पिपासिनी सत्ता की,
मखमली गाल की लाली।
कृषकों को तंगहाल बनाती,
इनकी बिन्दिया बाली।।
नोट-प्रस्तुत कविता हमारे लोकप्रिये प्रधान मंत्री मोदी जी पर नहीं लागु होता है।
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