रिस्वत आज रिवाज बनी है,
नई संस्कृति भ्रस्टाचार।
राजनीति के शब्दावलि में,
रही नहीं अब शिष्टाचार।।
रक्तों से लाल रुमाल भरा,
जीवन मधुमय खुशहाल हरा।
इन्साफ के मुरत साफ नहीं,
वस्त्रों में इनके दाग भरा।।
भाषा शैली भाषण बोली,
में दिखते नापाक इरादे।
सत्ता की चोली से चिपके,
करते हैं नित झुठे वादे।।
धर्म-कर्म और मर्म भिन्न है,
नैतिकता से दुर बहुत है।
सुरा-सुन्दरी के सौदागर,
आदत से मजबुर बहुत है।।
दल की दलदल में फँसकर हम,
मरते नहीं कराह रहे हैं।
नव-निर्माण हो भरत खण्ड का,
ऐसा कब से चाह रहे हैं।।
विकसित नहीं विकाशशील है,
पलने में सोती सरकार ।
किसे बुरा या भला कहूँ मैं,
सत्ता को शत-शत धिक्कार।।
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