आशीष कुमार की कविता
......................
मुझे बोलना नहीं आता लिखना नहीं आता
मुझे बोलना नहीं आता
मुझे लिखना नहीं आता
लेकिन अगर मैं लिख पाता
तो लिखता एक कविता
हिन्दुस्तान के मुसलमान के बारे में
छोटी लकीर था
कहते हैं कबीर था
उसकी तस्बीह में सौ दाने थे
इसके क्या माने थे ?
दोहों में साखी था
हाथों पे राखी था
गले में ताबीज था
बहुत ही नाचीज था
सुर में गाता था
सूरमा लगाता था
अलीगढ़ का ताला था
अमन का रखवाला था
पंचरवाला था
गोश्त काटता था
दोस्त बांटता था
यार अबे ...कहता था
अलिफ बे... पढ़ता था
कितना अजीब था
कि ....उसमें तहजीब था
वो भी कितना ?
इतना कि
अदब को अदब सीखनी होती है तो वो लखनऊ चली आती है
और
नफरत को नफरत सीखनी होती है तो वो गुजरात चली जाती है
सच को सच की तरह कहा जाए तो
संविधान की प्रस्तावना लिखने वालों में उनका नाम नहीं है
फिर भी न जाने क्यों
उन्होंने अपने हिस्से की धूप मांगी
तो संविधान की प्रस्तावना को सर से लगाया
उन्होंने ट्रेनें नहीं रोकी
जंतर मंतर ... रामलीला मैदान नहीं गए
वो जहां रहते थे, सहते थे, बसते थे
उसी बस्ती में, उन्होंने उठा लिया तिरंगा
मुझे बोलना नहीं आता लिखना नहीं आता
लेकिन अगर मैं लिख पाता
तो आपको बताता
कि आटे सने हाथों में
मेंहदी लगे हाथों में
ओट्स वाले हाथों में
नोट्स वाले हाथों में
जब तिरंगा आता है
तो कितने शान से लहराता है
वो दृश्य बड़ा पावन था
आंखों में सावन था
दो हजार-बीस में 1857 था
बुरके वाली औरतें... हिजाब वाली औरतें
जींस वाली लड़कियां, फ्रॉक वाली बच्चियां
वो दादियां,वो नानियां
वो सब बागी थीं
और उनके
कौम वाले गीत से
रोम-रोम संगीत से
राग बन गया
.वो जगह.... बाग बन गया
तवे पर रोटियां
घरों में बेटियां
छोड़ कर
वो बनाने निकलीं देश
उनका दर्द कितनों ने जाना क्या मालूम
लेकिन अगर मैं लिख पाता तो लिखता
घर ही नहीं देश भी बनता है औरतों से
दर्द बड़ा गहरा था
रोने पे पहरा था
आंसू निकलते थे
जज्बात निगलते थे
सोने सा मन
क्षण-क्षण
कण-कण
जन-गण-मन
मुझे बोलना नहीं आता, मुझे लिखना नहीं आता
लेकिन अगर मैं लिख पाता तो रूह से निकलने वाली उस कराह के बारे में लिखता
जो तब निकलती है जब लाखों लोगों की इज्जत पांच सौ पर नीलाम होती है
अगर सच बोलना इतना बड़ा गुनाह न होता
तो मैं जरूर कहता
कि
ये महज विरोध नहीं विद्रोह था
आजादी के बाद
सत्य और अहिंसा के साथ पहला आंदोलन
प्रस्तावना के साथ पहला आंदोलन
तिरंगे के साथ पहला आंदोलन
महिलाओं की अगुवाई में पहला आंदोलन
आपने इतिहास को किताबों में पढ़ा होगा
अब आप इतिहास के बनने के गवाह हैं
1857 से दो हजार 20 तक
ईस्ट इंडिया कंपनी से वेस्ट इंडिया कंपनी तक
वो खड़ी , वो अड़ी, वो लड़ीं वो लड़ती रहीं
किसके लिए
संविधान के लिए
लोकतंत्र में लोक के सम्मान के लिए
उन्होंने
मान दिया
हमारे संविधान को
हमारे तिरंगे को
हमारी औरतों को
बापू के इस देश में
पहली बार एक आंदोलन चला
और मैं लिख पाता तो आपको बताता
कि इस आंदोलन में था
अहिंसा और सत्याग्रह का आकर्षण
एक विराट सम्मोहन
कुछ इस तरह जैसे
अगर बापू होते, और वो आंदोलन करते तो ये था उस जैसा आंदोलन
मुझे बोलना नहीं आता
लिखना नहीं आता
लेकिन वो दर्द जो हिन्दुस्तान के मुसलमान का है
वो हिन्दुस्तान में हर इनसान का है
अगर मैं कह पाता तो बताता
कि तुम्हारा ये दर्द
मुझे जीने नहीं देता
तुम्हारा ये दर्द
मुझे मरने नहीं देता
तुम्हारा ये दर्द मेरा भी दर्द है
क्योंकि ये हममें से एक का है
इसलिए ये हर एक का है
और जो एक का नहीं, वो शेष का नहीं
जो एक का नहीं, वो देश का नहीं
अगर मैं लिख पाता तो लिखता
देशभक्ति अगर तुम्हारा कोई नाम होता तो शायद मुसलमान होता
मैं शर्मिंदा हूं
बहुत शर्मिंदा
कि मुझे बोलना नहीं आता , मुझे लिखना नहीं आता
.......................................................
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें