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ज़रा सोचो,
ओ मंज़र कैसा रहा होगा ?
जिसके पीठ में अपनों ने ही घोंपा ख़ंजर होगा !
ओ कितना बेरहम कोइ अपना हमदम होगा,
जिसने अपनों के ही
पीठ में घोंपा ख़ंजर होगा !
हवा का रूख भी,
ना जाने किस तरफ़ बहा होगा ?
ऐसा लगता है की ?
समन्दर नें भी अपने लहरों में कितने को डुबोया होगा,
ज़रा सोचो,ओ मंज़र कैसा रहा होगा ?
जब अपनों ने ही
अपनों के पीठ में घोंपा ख़ंजर होगा !
ना जाने उसने अपनों के लिये कितने ख़्वाब संजोया होगा,
कहीं ऐसा तो नहीं....की ?
उसी नें उनके साथ ये विश्वासघात किया होगा ?
लगता है!
कई बार उसने,ये प्रयास किया होगा,
तब जाकर कहीं,उसने उनके पीठ में घोंपा ख़ंजर होगा !
ज़रा सोचो,ये मंज़र कैसा रहा होगा ?
जब अपनों ने ही
अपनों के पीठ में घोंपा ख़ंजर होगा !
मौत भी आज अपने क़िस्मत पर आँसु बहा रहा होगा,
जब ओ मौत से गले लगा कर ये क़िस्सा सुना रहा होगा !
ज़रा सोचो ओ मंज़र कैसा रहा होगा ?
जब अपनों ने ही अपनों के पीठ में घोंपा ख़ंजर होगा !
© ✍..मिथिलेश राय
धमौरा:-०९-०३-२०१९
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